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13. सतसंगत अनिवार्य (इस्तम्बोल नगर, टर्की)

श्री गुरू नानक देव जी येरूश्लम से प्रस्थान करके टर्की देश की राजधानी इस्तम्बोल में पहुँचे। यह नगर युरोप महाद्वीप में पड़ता है। उन दिनों भी वहाँ पर इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो चुका था। अतः गुरुदेव को उनके परिधान के कारण हाज़ी समझकर जनसाधारण सम्मान देने लगे। परन्तु जब उन्हें मालूम हुआ कि आप जी किसी विशेष सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते और मत-मतान्तरों के मतभेदों से मुक्त हैं तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। इसलिए आपसे मिलने अनेकों लोग आते। आपसे कीर्तन श्रवण करते, प्रवचन सुनते तथा अपनी शँकाओं के समाधान हेतु विचार विनिमय करते। अधिकाँश लोगों का प्रश्न होता: कि प्रभु प्राप्ति के लिए इस्लाम, ईसाई अथवा यहूदी सिद्धाँतों में से कौन से श्रेष्ठ है ? जिनको धारण करने से परम तत्व की प्राप्ति हो सकती है ? इन सब प्रश्नों के उत्तर में गुरुदेव कहते: वे सभी सिद्धाँत अच्छे है जो मनुष्य को चरित्रवान बनाएँ। वस्तुतः मनुष्य का लक्ष्य तो उच्च आचरण का स्वामी बनने का है। यह तभी सम्भव हो सकता है यदि मनुष्य अपनी दैनिक क्रिया में सतसँग करना अनिवार्य अँग बना ले। क्योंकि सतसँग ही प्रतिदिन उज्ज्वल जीवन जीने की प्रेरणा करता है। जो लोग सतसंगत में नहीं जाते वे किसी भी समुदाय से सम्बन्ध रखते हों, धीरे-धीरे विनाश की तरफ बढ़ जाते हैं। 

सतसंगति कैसी जाणीऐ ।। जिथै एको नामु वखाणीऐ ।।
एको नामु हुकमु है नानक सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ ।।
राग सिरी, अंग 72

अर्थः साधसंगत किस प्रकार की जानी जाती है ? साधसंगत ऐसी जानी जाती है, जिसमें केवल एक ही नाम का उच्चारण होता है। नानक जी कहते हैं कि केवल एक नाम की की अराधना करनी चाहिए और यही फरमान हुआ है। यह बात सच्चे गुरू ने मूझे समझा दी है। गुरुदेव ने वहाँ के निवासियों को प्रेरणा दी कि वे एक धर्मशाला बनाकर प्रतिदिन ससंगत करें तथा कहा जो लोग वहाँ आकर महापुरुषों का जीवन तथा उनकी विचारधारा, बाणी इत्यादि का अध्ययन करते रहेंगे, वे अपना जीवन सफल करके परमतत्व को प्राप्त करेंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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