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10. पिता द्वारा व्यापार के लिए
प्रेरित करना
एक दिन पीरू नामक व्यापार करने वाला बनजारा बैलों का काफिला लेकर आया और दूसरे देशों
का माल बेचना शुरू किया। इन बनजारों के अमीरी ठाट-बाठ देखकर रविदास जी के पिता जी
के मन में एक ख्याल आया और उन्होंने रविदास जी को इस काफिले के दर्शन करवाए और कहा
कि पुत्र अगर तुम और कोई कार्य नहीं करना चाहते तो इन व्यापारियों की तरह बन जाओ।
बैल भी खरीद दूँगा। कुछ सामान लेकर व्यापार कर, जिससे अपने परिवार की पालना कर सके।
भक्त जी अपने पिता जी की बात सुनकर मुस्करा दिए और कहा कि पिता जी मैं तो व्यापार
पहले से ही करता हूँ, मुझे इस झूठे व्यापार की जरूरत नहीं है। परमात्मा ने जो मस्तक
पर लिखा है, वह मेरे हिस्से देना है। मेरे पास दो खूबसूरत बोल हैं, मैं रात-दिन उन
पर माल लादकर लाभ कमा रहा हूँ। दोनों देशों (लोक-परलोक) का माल मेरे पास है, मैंने
जो व्यापार किया है, वह सदा ही बढ़ता ही जाता है, उसमें घाटा नहीं होता और चोर और आग
का भी भय नहीं है, मेरा व्यापार सदा सलामत रहने वाला है। रविदास जी ने राग “गउड़ी
बैरागणि“ में यह शबद उच्चारण किया:
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बैरागणि रविदास जीउ ॥
घट अवघट डूगर घणा इकु निरगुणु बैलु हमार ॥
रमईए सिउ इक बेनती मेरी पूंजी राखु मुरारि ॥१॥
को बनजारो राम को मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥१॥ रहाउ ॥
हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ॥
मै राम नाम धनु लादिआ बिखु लादी संसारि ॥२॥
उरवार पार के दानीआ लिखि लेहु आल पतालु ॥
मोहि जम डंडु न लागई तजीले सरब जंजाल ॥३॥
जैसा रंगु कसुमभ का तैसा इहु संसारु ॥
मेरे रमईए रंगु मजीठ का कहु रविदास चमार ॥४॥१॥ अंग 345
अर्थ: राग गउड़ी में भक्त रविदास जी अपने पिता जी को नाम व्यापार
से सबंधित जानकारी देते हुए कहते हैं कि असल धन तो राम का नाम ही है। दिल के पहाड़ों
पर कठिन रास्ते में मेरा मन बैल (निरगुण) गुणों से रहित सदा तैयार है, इस बैल के
साथ मैं व्यापार करता हूँ। मैं ईश्वर के पास दिन रात विनती करता हूँ कि हे पातशाह !
मेरी स्वाशों रूपी पूँजी कायम रखना, भाव यह है कि घाटा ना पड़े। मैं खलकत (दुनियावी
जीव) आदि को डँके की चोट पर कहता हूँ कि लोगों, जो कोई नाम व्यापार करने वाला
व्यापारी है तो आकर सौदा कर ले, क्योंकि मेरा टाँडा (काफिला) निकला जा रहा है। अगर
किसी ने व्यापार करना है तो में साथ आकर मिल जाओ। मैं नाम का व्यापार करने वाला
व्यापारी हूँ। मैंने राम नाम रूपी अमृत पदार्थ लादा हुआ है और दुनियाँ ने कुरितियाँ
रूपी जहर लादा हुआ है। अमृत पीकर मरे हुए भी जिन्दा हो जाते हैं। दोनों प्रकार के
लोगों को कर्मों अनुसार दण्ड देने के लिए धर्मराज ने सब माल-मताल (अच्छे-बूरे) का
हिसाब जीव के लिख हुए हैं और जिन्होंने रास नही गवाई, उनका परमात्मा के दरबार में
मान होता है। पर जिन्होंने मूल गवा लिया है। वह बेइज्जत जानकर सजा के हकदार ठरराए
जाऐंगे। पर मुझे यमदूत रूपी दण्ड नही मिलेगा क्योंकि मैंने दुनियाँ के विषय रूपी
सारे झगड़े जँजाल ही छोड़ दिए हैं और अपनी रास सलामत रखी है। दुनियाँ के सुख, कसुम्भे
के कच्चे और फीके रँग की तरह हैं, जिसे उतरते देर नही लगती, भाव यह है कि यह सुख
सपने की तरह हैं। रविदास जी अपने पिता जी से कहते हैं कि करतार यानि परमात्मा के
नाम का रँग मजीठ की तरह पक्का है, जो कभी भी नहीं उतरता, इसलिए रविदास चमार ने अपने
कोरे मन को इस नाम के असली और पक्के रँग में रँग लिया है, इस पर अब ओर कोई रँग नहीं
चड़ सकता।
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