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1381. 'कुचजी' बाणी किसकी रचना है ?

  • गुरू नानक देव जी 

1382. 'कुचजी' बाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में किस अंग पर दर्ज है ?

  • अंग 762

1383. 'कुचजी' बाणी में श्री गुरू नानक देव जी की कितनी पँक्तियाँ हैं ?

  • 16

1384. 'कुचजी' बाणी किस राग में है ?

  • राग सूही

1385. 'कुचजी' बाणी का विषय क्या है ?

  • परमात्मा से बेमुख हुई लोकाई

1386. 'कुचजी' शब्द का प्रयोग किस रूप में किया गया है ?

  • स्त्री रूप में

1387. 'कुचजी' बाणी का भाव अर्थ क्या है ?

  • गुरू साहिब जी ने बताया है कि जैसे कुचजी स्त्री अपने अवगुणों के कारण अपने पति के प्यार से वँचित रह जाती है, उसी तरह की कुचजी जीव-स्त्री साँसारिक कार-व्यवहार सुख-आराम में खचित हो, हर प्रकार के विकारों में उलझी रहती है और अपने मूल (परमात्मा) से टूटकर पापों की भागीदार बनी रहती है।

1388. 'सुचजी' बाणी किस बाणीकार की रचना है और किस राग में है ?

  • श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के सूही राग में सुशोभित यह रचना श्री गुरू नानक साहिब जी की है।

1389. 'सुचजी' का शाब्दिक अर्थ क्या है ?

  • अच्छा, शुभ, पवित्र

1390. 'सुचजी' बाणी का भाव अर्थ क्या है ?

  • इसमें जीव का स्त्री रूप में प्रकटाव करते हुए उसके सुचजे (अच्छे) गुणों को रूपमान किया है और सामाजिक व्यवहार द्वारा यह प्रकट किया है कि कैसे समझदार स्त्री अपने कार-व्यवहार से अपने पति को प्रसन्न करके उसके प्यार को प्राप्त कर लेती है। इसी प्रकार जीव-स्त्री नैतिक कँदरों-कीमतों को धारण करके अकालपुरख (परमात्मा) के रँग में रँगी जा सकती है।

1391. 'गुणवंती' बाणी किस बाणीकार की रचना है ?

  • श्री गुरू अरजन देव साहिब जी

1392. 'गुणवंती' बाणी किस राग में है ?

  • राग सूही

1393. 'गुणवंती' बाणी का मूल भाव क्या है ?

  • इस बाणी का मूल भाव सँयमी वृतियों के द्वारा परमात्मा का गुण गायन करना और उन गुणों को अंगीकार करने के लिए आत्मसमर्पण एँव नम्रता जैसे गुणों को अपनी जिन्दगी का अंग बना लेना है। ऐसी अवस्था ही प्रभु से मिलाप का रास्ता खोजती है।

1394. 'घोड़ीआ' बाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में किस अंग पर है ?

  • अंग 575

1395. 'घोड़ीआ' बाणी किस बाणीकार की रचना है ?

  • श्री गुरू रामदास साहिब जी

1396. 'घोड़ीआ' बाणी किस राग में है ?

  • राग वडहंस

1397. 'घोड़ीआ' बाणी की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि क्या है ?

  • इस रचना की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि शादी के समय घोड़ी पर चढ़ने से जाकर जुड़ती है। जैसे दूल्हे के घोड़ी पर चढ़ते समय गीत गायन किए जाते हैं। इसी रूप को प्रतीक की तरह प्रयोग करते हुए गुरू साहिब जी फरमाते हैं कि जैसे दूल्हे को दुल्हन के घर ले जाने का माध्यम घोड़ी है, उसी तरह ही मनुष्य देह, आत्मा को परमात्मा से मिलाने का माध्यम है, जैसे दूल्हे वाली घोड़ी का श्रँगार किया जाता है, उसी प्रकार देह का श्रँगार नाम-सिमरन व नैतिक गुणों को अंगीकार करने से होता है जो मन की चँचलता को लगाम डालकर गुरूघर की ओर मोड़ कर ले जाने में समर्थ होते हैं।

1398. 'पहरे' बाणी रचना का मूल आधार क्या है ?

  • 'पहरे' रचना का मूल आधार वक्त, पहर या समय है। पहर का भाव दिन या रात का चौथा हिस्सा है।

1399. 'पहरे' शीर्षक के अर्न्तगत किस किस बाणीकार की रचना है ?

  • 3 गुरू साहिबानों की :
    गुरू नानक देव जी
    गुरू रामदास जी
    गुरू अरजन देव जी

1400. 'पहरे' बाणी के अर्न्तगत मनुष्य के जीवन को कितने भागों में बाँटा है ?

  • 4 हिस्सों में:
    प्रथम हिस्सा माता का गर्भ
    दूसरा जन्म के उपरान्त बचपन
    तीसरा जवानी
    चौथा बुढ़ापा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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