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12. करोड़ सिंघिया मिसल

करोड़ सिंघिया मिसल के पूर्वज सरदार शाम सिंह जी गाँव नारली के निवासी थे। सन् 1739 ईस्वी में आप जी नादिरशाह की सेना से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। तद्पश्चात् उनके सहयोगी सरदार कर्म सिंह इस जत्थे के मुख्य बने परन्तु वह भी सन् 1746 ईस्वी के एक युद्ध में शहीद हो गए। तब इस जत्थे का नेतृत्त्व सरदार करोड़ा सिंह जी ने सम्भाला। आप गाँव फैजगढ़ जिला गुरदासपुर के निवासी थे। जब सन् 1748 ईस्वी में मिसलों का गठन किया गया तब आपके जत्थे को एक मिसल की मान्यता प्राप्त हुई। इस मिसल का नाम मिसल फैजगढ़िया पड़ गया परन्तु इस मिसल को आपकी वीरता के कारण आपके नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। सरदार करोड़ सिंह जी बहुत साहसी योद्धा थे, उन्होंने उड़मुड़ टाँडा के युद्ध में जालँधर के विश्वम्बरदास दीवान (मुख्य मँत्री) को मार गिराया था। सिक्ख सँघर्ष में सरदार करोड़ सिंह जी ने बहुत सी आर्थिक सहायता भी की। वह उस क्षेत्र के धनाढय व्यक्तियों में से एक थे। इस मिसल का प्रभाव तथा अधिकार क्षेत्र बँगा, नवाँशहर और बुरवा इत्यादि क्षेत्र थे। इस मिसल का मुख्य लक्ष्य सरहिन्द के नवाब को सदैव के लिए समाप्त करना था, जिसमें वे पूर्ण रूप से सफल हुए। अहमदशाह अब्दाली को उसके चौथे आक्रमण में दिल्ली से लौटते समय सर्वप्रथम इसी जत्थे ने बुरी तरह लूटा और उससे अनेकों बन्दी बनाई गई अबलाओं को छुड़वाने में सफल हुए। जब अब्दाली सन् 1765 ईस्वी में सिक्खों से परास्त होकर वापिस लौट गया और उसके पास जब सिक्खों से सीधी टक्कर की क्षमता न रही तब इस मिसल ने अपना प्रभाव क्षेत्र का विकास करके सतलुज नदी पार भी कर लिया। इस मिसल के दो प्रमुख वीर योद्धा थे जिनके नाम क्रमशः जत्थेदार मस्तान सिंह तथा जत्थेदार कर्म सिंह थे। इन दोनों के वीरगति प्राप्त करने पर सन् 1761 ईस्वी को जत्थेदारी सरदार बघेल सिंह जी को प्राप्त हुई। यह युवक बहुत साहसी तथा बहुमुखी प्रतिभा का स्वामी था। आप जी का निवास स्थान गाँव झबाल जिला श्री अमृतसर साहिब जी था। जिन दिनों आप करोड़ सिंघिया मिसल के सँचालक बने उन दिनों भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ इस प्रकार थीः

1. मुगलों का अधिकार क्षेत्र इलाहाबाद के प्रान्त तक ही सीमित था।
2. पूर्व की तरफ अवध के नवाब का राज्य था।
3. दक्षिण की ओर भरतपुर के जाटों का ही अधिकार था।
4. पश्चिम की तरफ राजपूतों का हाथ ऊपर था।
5. शाह आलम द्वितीय स्वयँ इलाहाबाद में था।
6. दिल्ली नजीबुदौल के अधिकतर में थी। दिल्ली नगर की पुरानी शानोशौकत काफूर हो गई थी। भूख ही नाच करती थी। जादूनाथ सरकार ने ठीक ही लिखा है कि दिल्ली इतनी बदकिस्मत थी कि अफगानों, मरहट्टों, सिक्खों, जाटों, गूजरों तथा पिडँरियों के हाथो तबाह होती रही।
7. उस समय किसानों की दशा बहुत दर्दनाक थी। इस तरह मरहट्टों का साम्राज्य भी टूट गया था।
8. ग्वालियर के सिंधिया, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होलकुर नाममात्र ही पेशवा के अधीन थे।
9. नागरपुर के भौसले ने आज़ादी का ऐलान कर दिया था।
10. पेशवा उत्तरी हिन्दुस्तान में हाथ पसार रहा था।
11. मरहट्टे चाहे शक्तिशाली दिखाई देते थे परन्तु उनकी शक्ति कम हो गई थी।
12. जाटों ने आगरा और जयपुर के बीच हकूमत बना ली थी। उस समय जाट शक्तिशाली थे। जाट राज्यों की आर्थिक स्थिति मजबूत थी।
13. राजपूतों का नेता माधे सिंह था। उसका अधिकार क्षेत्र जैन नगर में था।
14. जैन नगर के समीप मारवाड़ का राजा विजय सिंह था।
15. रूहेले दिल्ली व हिमालय के बीच अपना अधिकतर जमा चुके थे। बरेली उनका केन्द्र था।
16. नजीबुद्दौला हमीज रहमत खाँ तथा अहमद खान बँगरा प्रसिद्ध नेता थे।
17. उत्तर पूर्व गँगा में सुजाहुदौला, एक सुलझा हुआ तथा शानदार जरनैल था।
18. अँग्रेजों ने क्लाइव के नेतृत्त्व में बँगाल, बिहार व उड़ीसा की दीवानगी ले ली थी। उत्तर सरकार पर कब्जा था व कर्नाटक का नवाब अँग्रेजों का पानी भरता था।

बड़े घल्लूघारे के समय सन् 1762 ईस्वी जत्थेदार करोड़ा सिंह जी को अनेकों घाव सहन करने पड़े परन्तु वह शूरवीर प्रथम पँक्ति में होकर लड़ते रहे। सन् 1769 ईस्वी में जैन खान को मौत के घाट उतार करके सिक्खों ने समस्त सरहिन्द क्षेत्र को आपस में बाँट लिया था। इस बँटवारे में हरियाणा क्षेत्र में आपके हिस्से में बहुत बड़ा भू-भाग हाथ आया। तद्पश्चात् दल खालसा के सेनानायक सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया के नेतृत्त्व में सरदार करोड़ा सिंह जी अपनी मिसल के सिपाहियों को लेकर सन् 1764 की फरवरी मास के अन्त में बुडिया घाट से यमुना नदी पार कर गए। सर्वप्रथम सहारनपुर, फिर शामली, कँदेला, अँबली, मीरांपुर, देवबन्द, मुजफ्रफर नगर, जबलापुर, कनखल, लँढोरा, नाजीबाबाद, नगीना, मुरादाबाद चन्दौसी अनूप शहर, मठ मुनीश्वर आदि नगरों के शासकों से खिराज वसूल की। इन युद्धों में दिल्ली के शासक नजीबुद्दौला की सेना से लोहा लेते समय सरदार करोड़ा सिंह जी गोली लगने से वीरगति को प्राप्त हुए। इस पर उनके स्थान पर मिसल के सरदार बघेल सिंह जी बने। सन् 1769 ईस्वी में जब नजीबुद्दौला के विरूद्ध राजा जवाहर मल की सिक्खों ने सहायता की, उस समय सरदार बघेल सिंह जी अपने सिपाहियों सहित सम्मिलित थे। अब्दाली के आठवें आक्रमण के समय सरदार बघेल सिंह जी ने अब्दाली के शिविर को बुरी तरह लूट लिया और उसे परास्त करके वहाँ से वापिस लोटने पर विवश कर दिया। दो वर्ष बाद मई, 1767 ईस्वी में सिक्खों ने पुनः यमुना पार धावा बोल दिया। उन दिनों अब्दाली ने भारत पर नौंवा आक्रमण किया हुआ था। अब्दाली ने अपने सेनानायक जहान खान को विशाल सेना सहित नजीबुद्दौला की सहायता के लिए भेजा। जहान खान ने सिक्खों पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में बघेल सिंह गम्भीर रूप में घायल हो गए।

इस पर वहाँ से सिक्ख पँजाब लौट आए। इस बीच अब्दाली ने फिर से भारतीय अबला महिलाओं को पकड़कर अपनी दासियाँ बना लिया। जब वह वापिस लौटने लगा तो दल खालसा के सरदारों ने उस पर जेहलम नदी पार करते समय आक्रमण कर दिया और समस्त अबला महिलाओं को छुड़वा लिया। इस अभियान में बघेल सिंह का भी बहुत योगदान था। अहमदशाह अब्दाली का भय सिक्खों के हृदय पर कभी रहा ही नहीं। अब सिंह उसे परास्त बादशाह से अधिक महत्त्व नहीं देते थे। अतः सिक्खों ने पुनः सन् 1768 ईस्वी में यमुना पार के क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया। इस बार नजीबुद्दौला ने सिक्खों से संधि करने का मन बना लिया। उसने मुकाबला करने के स्थान पर गँगा-यमुना के मध्य क्षेत्र को सिक्खों की रक्षा वाला क्षेत्र मान लिया और प्रत्येक फसल में सिक्खों को किसानों से निश्चित दर अनुसार लगान मिलने लगा। यह वह समय था जब सिक्ख एक बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति में उबरे थे। सिक्खों का प्रभाव क्षेत्र सिंधू नदी से लेकर यमुना नदी तक फैल चुका था परन्तु खेद की बात यह थी कि शक्ति प्राप्ति की दौड़ में अधिकाँश मिसले अधिक से अधिक क्षेत्रों को अपने नियन्त्रण में लेने की होड़ में लग गई। परिणामस्वरूप कई बार आपस में भी लड़ पड़ते, जिस कारण वे अपना ध्यान शत्रु को मार गिराने में नहीं लगा सके। इसी सँदर्भ में यह घटना बहुत सोचने समझने की थी। सन् 1769 ईस्वी में सरदार अमर सिंह पटियाले वाले ने सरदार बघेल सिंह की मिसल के कुछ गाँवों को अपने अधिकार में ले लिया। इस पर दोनों पक्षों में युद्ध ठन गया। घुड़ाम के रण में सेना आमने सामने हुई परन्तु जल्दी ही राजा अमर सिंह को भूल का अहसास हुआ। उसने अपने वकील द्वारा संधि का सँदेश भेजा जो स्वीकार कर लिया गया। इस पर स्थाई मित्रता स्थापित करने के लिए राजा अमर सिंह ने अपने पुत्र साहिब सिंह को सरदार बघेल सिंह के हाथों अमृतपान करवाया।

सन् 1773 ईस्वी में जब उत्तरप्रदेश के जलालाबाद क्षेत्र के पंडितों की प्रर्थना को स्वीकार करते हुए सरदार कर्म सिंह ने यमुना पार की तो उस समय उनके साथ सरदार बघेल सिंह जी भी थे। जलालाबाद के स्थानीय हाकिम (शासक) हसन खान ने एक नवेली दुल्हन जो कि एक ब्राह्मण स्त्री थी, का बलपूर्वक अपहरण कर लिया था। वह दुष्ट प्रायः ऐसी घिनौनी करतूत करता ही रहता था। अतः उसे इस बार सबक सिखाने के लिए असहाय अथवा दीन लोगों की सहायता हेतु सिक्ख कई मीलों की दूरी तय करके वहाँ पहुँच गए। भयँकर युद्ध हुआ परन्तु सत्य की विजय हुई। सिक्खों ने हसन खान को मृत्युदण्ड दिया और उस ब्राह्मण स्त्री को अपनी ओर से दहेज देकर पति के घर विदा किया। इस क्षेत्र को विजय करने के उपरान्त सिक्ख दिल्ली की तरफ बढ़े। 18 जनवरी, 1774 ईस्वी को सिक्ख शाहदरे की तरफ से दिल्ली में घुस गए और वहाँ पर कुछ अमीरों को जा दबोचा। उनसे नज़राना लेकर शाही सेना से सामना होने से पूर्व तुरन्त पँजाब लौट गए। सन् 1775 ईस्वी में करोड़ा मिसल का स्वामी सरदार बघेल सिंह अपने अन्य साथियों के साथ बेगी घाट से यमुना पार करके 22 अप्रैल को लखनोती, गँगोह, अम्बहेटा, ननौता आदि क्षेत्रों का दमन करते हुए देवबन्द जा विराजे। वहाँ का स्थानीय प्रशासक बहुत क्रूर था और जनता पर अत्याचार करने से बाज नहीं आता था। अतः सिक्खों ने स्थानीय जनता की पुकार पर उसे परास्त कर मृत्युदण्ड दे दिया। वहाँ की जनता की माँग पर नये प्रशासक की नियुक्ति की गई जिसने प्रति वर्ष 600 रूपये नज़राने के रूप में सिक्खों को देने स्वीकार किए। यहाँ से दल खालसा गौसगढ़ पहुँचे। यहाँ का वास्तविक प्रशासक नजीबुद्दौला का देहान्त 31 अक्टूबर, 1770 को हो चुका था, उसके स्थान पर उसका पुत्र जबीता खान प्रशासक था परन्तु उसने सिक्खों के उच्चकोटि के आचरण को देख सुनकर उनसे संधि कर ली और सिक्खों को पचास हजार रूपये नज़राने के रूप में दिए। वास्तव में उसने अपने पिता नजीबुद्दौला की नीति त्याग दी और सिक्खों को अपना स्थाई मित्र बनाने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया।

यहाँ से वह सिक्ख सेना के साथ मिलकर दिल्ली विजय करने चल पड़ा। 15 जुलाई, 1775 ईस्वी को सिक्ख सेना दिल्ली में प्रवेश कर गई। वहाँ जल्दी ही उनका शाही सेना से सामना हुआ, घमासान युद्ध के बाद भी कोई निर्णय नहीं हो पाया। अन्त में सिक्ख सेना वापिस मेरठ की तरफ आ गई। दिल्ली के जरनैल नज़फ खान ने सिक्खों का पीछा किया परन्तु उसको भारी क्षति उठानी पड़ी। लक्ष्य की प्राप्ति न होती देखकर जबीता खान अपने क्षेत्र गौसगढ़ लौट गया। ऐसे में सिक्ख पुनः यमुना नदी पार करके 24 जुलाई, 1775 ईस्वी को पँजाब लौट पड़े। सन् 1775 ईस्वी में दिल्ली से अब्दुल अहमद ने अपने भाई अब्दुल कासिम को सहारनपुर का फौजदार नियुक्त करके जाबिता खान को दण्डित करने के लिए भेजा। इस पर जाबिता खान ने अपनी सहायता के लिए पँजाब से सिक्खों को आमन्त्रित किया। सरदार बघेल सिंह अपने अन्य सहयोगी सरदारों को साथ लेकर बुढाना नामक स्थान पर जीबिता खान को मिले। 11 मार्च, 1776 ईस्वी में अमीर नगर के रणक्षेत्र में घमासान युद्ध हुआ। जिसमें शाही जरनैल अब्दुल कासिम मारा गया। उसकी सेना भाग गई। मुगल सेना का शिविर सिक्खों के हाथ आया। तद्पश्चात् सिक्ख अलीगढ़, कासगँज इत्यादि से नज़राने लेते हुए जून, 1775 में पँजाब वापिस चल पड़े। इस प्रकार के नित्यप्रति युद्ध से परेशान होकर दिल्ली के बादशाह ने जाबिता खान को ओदश दिया कि वह सिक्खों के साथ मुगल सरकार की स्थाई संधि की कोई बात चलाएँ। दोनों पक्षों में लम्बी बातचीत हुई, जिसका परिणाम सन् 1781 ईस्वी में यह हुआ कि बादशाह ने गँगा यमुना के मध्य के क्षेत्र के लगान में से आठवां हिस्सा सिक्खों को देना स्वीकार कर लिया परन्तु यह संधि अधिक समय तक न चल सकी। इस पर सिक्ख सरदार बघेल सिंह के नेतृत्त्व में पुनः यमुना पार कर गए।

इससे पहले सन 1780 ईस्वी में दिल्ली में स्थित प्रधानमँत्री अब्दुल खान ने राजकुमार फरखँदाबख्त को राजा अमर सिंह पटियाले वाले के विरूद्ध विशाल सेना देकर भेजा तो उस समय सरदार बघेल सिंह शाँत बने रहे। उन्होंने अपने क्षेत्र जिला बरनाला में से शाही सेना को गुजरने दिया परन्तु जब दोनों सेनाएँ आमने सामने हुई, तभी उन्होंने अपनी सेना को पटियाला नरेश के पक्ष में रणक्षेत्र में भेज दिया। जब राजकुमार फरखँदाबख्त ने महसूस किया कि वह चारों ओर से सिक्ख सेना से घिर गया है तब वह संधि की बातें करने लगा। इस पर बघेल सिंह ने कह दिया कि अब तो तुम्हें अन्य मिसलों के सरदारों की सेना का खर्चा वहन करना पड़ेगा, जो पटियाला नरेश की सहायता हेतु यहाँ आई हैं। विवशता में राजकुमार फरखँदाबख्त ने बहुत सा धन दिल्ली से मँगवाया और उसे मुआवजे के रूप में सिक्ख सेनापतियों को दिया और जान बचाकर लौट गया। सन 1783 ईस्वी के प्रारम्भ में अधिकाँश सिक्ख मिसलों ने दिल्ली के प्रशासक को कमजोर जानकर उस पर धावा करने की योजना बनाई। इन में सरदार बघेल सिंह व सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया जी प्रमुख थे। सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया जी ने दिल्ली पहुँचने से पहले भरतपुर के जाट नरेश से एक लाख रूपये नज़राना वसूल किया। इसके उपरान्त दिल्ली नगर में प्रवेश कर गए। इस समय दल खालसा के जवानों की सँख्या तीस हजार थी। मुल बादशाह शाहआलम द्वितीय उस समय सिक्खों का सामना करने में अपने को असमर्थ अनुभव कर रहा था, इसलिए वह शान्त बना रहा। अतः सिक्ख बिना लड़े ही दिल्ली के स्वामी बन गए। एक म्यान में दो तलवारें तो रह नहीं सकती थी। अतः बादशाह शाहआलम द्वितीय ने सिक्खों को प्रसन्न करने की समस्त चेष्टाएँ कीं और बहुत से नज़राने भेंट किए और अन्त में एक संधि का मसौदा प्रस्तुत किया।

इस संधि पत्र पर सरदार बघेल सिंह व वजीर आजम गोहर ने हस्ताक्षर कियेः

1. खालसा दल को तीन लाख रूपये हर्ज़ाना के रूप में दिए जाएँ।
2. नगर की कोतवाली तथा "चुंगी" वसूल करने का अधिकार "सरदार बघेल सिंह" को सौंप दिया जाएगा।
3. जब तक गुरूद्वारों का निर्माण सम्पूर्ण न हो जाए, तब तक सरदार बघेल सिंह चार हजार सैनिक अपने साथ रख सकंगे।

इस समय दल खालसा के तीस हजार सैनिक दिल्ली में अपना विशाल शिविर बनाकर समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। यही शिविर स्थल दल खालसे की छावनी बाद में तीस हजारी कोर्ट के नाम से विख्यात हुई। आजकल यहाँ तीस हजारी मैट्रो रेलवे स्टेशन है। सरदार बघेल सिंह जी के लिए सबसे कठिन कार्य उस स्थान को खोजना था, जहाँ नौवें गुरू, श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी को शहीद किया गया था। आपने एक वृद्ध स्त्री को खोजा जिसकी आयु उस समय लगभग 117 वर्ष थी। उसने बताया कि जहाँ चाँदनी चौक में मस्जिद है, वही स्थल है, जहाँ गुरूदेव विराजमान थे और उन पर जल्लाद ने तलवार चलाई थी। उसने बताया कि मैं उन दिनों 9 वर्ष की थी और अपने पिता के साथ आई थी। मेरे पिता ने वह स्थल अपनी मश्क से पानी डालकर धोया था। यह मस्जिद उन दिनों नहीं हुआ करती थी। इसका निर्माण बाद में किया गया, इससे पहले महा बड़ का वृक्ष था। सरदार बघेल सिंह जी को गुरूद्वारा निर्माण कार्य में बहुत संघर्ष करना पड़ा, कहीं बल प्रयोग भी किया गया परन्तु वह अपनी धुन के पक्के थे। अतः वह अपने लक्ष्य में सफल हो गए। उन्होंनेः

1. गुरूद्वारा श्री माता सुन्दर कौर साहिब जी
2. गुरूद्वारा श्री बँगला साहिब जी
3. गुरूद्वारा श्री रकाबगंज साहिब जी
4. गुरूद्वारा श्री शीश गँज (सीस गँज) साहिब जी
5. गुरूद्वारा श्री नानक प्याऊ साहिब जी
6. गुरूद्वारा श्री मँजनू टीला साहिब जी
7. गुरूद्वारा श्री मोती बाग साहिब जी
8. गुरूद्वारा श्री बाला साहिब जी

इत्यादि ऐतिहासिक गुरूद्वारों का निर्माण करवाया। सन् 1857 ईस्वी के गद्दर के पश्चात् राजा सरूप सिंह जींद रियासत ने कड़े परिश्रम के बाद विलायत से स्वीकृति लेकर गुरूद्वारा शीश गँज का आधुनिक ढँग से निर्माण करवाया पँजाब लौटते समय बघेल सिंह जी ने अपना एक वकील लखपतराय दिल्ली दरबार में अपने प्रतिनिधि के रूप में छोड़ दिया। इस वर्ष पुनः सरदार बघेल सिंह, सरदार भाग सिंह, सरदार भँगा सिंह, सरदार गुरदित सिंह आदि मिलकर यमुना पार कर गए और जाबिता खान को नज़राना न भेजने के लिए ललकारा। उससे पिछला हिसाब चुकता करके अनूप शहर के अमीरों से नज़राने वसूले। इस पर गँगा नदी के उस पार के अ‌वधी नवाब को अपनी सत्ता डगमगाती हुई दिखाई दी। उसने तुरन्त अँग्रेजों से सहायता माँगी और नदी तट पर मोर्चा बाँधकर गोलाबारी करने लगे। समय की नज़ाकत को मद्देनजर रखते हुए सिक्खों ने गँगा पार करने की योजना स्थगित कर दी। फिर दल खालसा ने अपने अपने खर्चे पूरे करने के लिए अलीगढ़, खुरजा, हाथरस तथा इटावा के नवाबों व अमीरों से नज़राने वसूल किए किन्तु इटावा के नवाब ईसा खान ने मुकाबला किया किन्तु पराजित होकर भाग गया। तद्पश्चात् सिक्ख विजय के डँके बजाते हुए बुलँदशहर से नज़राने वसूलते हुए पँजाब को लौट गए। बादशाह शाहआलम के प्रधानमँत्री नजीबुद्दौला की मृत्यु सन् 1770 ईस्वी में हुई। उसके पुत्र जबिता खान को मीर बख्शी पद तथा "अमीर उल उमरा" की उपाधि से सम्मानित कर दिया गया परन्तु दरबारियों की आपसी अनबन के कारण जाबिता खान को जल्दी ही सब कुछ खो देना पड़ा, विवशता में उसने सिक्खों से सहायता माँगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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